किसी भी जाति या समाज के प्रेरणास्त्रोत होते हैं जिनकी जयन्ती मना कर लोग उनके आर्दशों से प्रेरणा प्राप्त करते है। ऐसे ही एक महापुरूष दादामुनि महाराजा अग्रसैन जी हुए हैं, जो अग्रवाल समाज के प्रवर्तक कहलाए जाते हैं। भारतीय इतिहास में ऐसे बहुत कम सम्राट हुये हैं, जिन्हें किसी नये वंश-प्रवर्तक का श्रेय मिला हो। महाराजा अग्रसैन ऐसे ही अहोभागी सम्राट थे। वे महान राजा होने के साथ-2 एक प्रथक वंश के कर्ता भी थे। महाराजा अग्रसैन वैशालक वंश में उत्पन्न हुये किन्तु उन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा तथा क्षमता के बल पर एक नए नगर और राज्य की स्थापना की। उनका यह राज्य उन्हीं के नाम पर अग्रोदक कहलाया। उन्होंने वहीं च्गणज्‌ पर आधारित लोकतन्त्रीय शासन पद्वति का प्रचलन किया। उन्होंने अपने राज्य को 18 श्रेणियों या कुलों में विभक्त किया जो वास्तव में उनके प्रतिनिधि थे। इन्हीं प्रतिनिधियों की सहायता से वे अपने राज्य का संचालन करते थे।अपने राज्य को सुंगठित करने की दृष्टि से उन्होंने अपने राज्य में 18 यज्ञों का आयोजन किया और इन 18 कुलों को संगठित कर 18 गोत्रों का प्रवर्तन कर यह व्यवस्था बना दी की भविष्य में अपने गोत्र का छोड़कर इन्हीं कुलों में परस्पर विवाह सम्बन्ध स्थापित होंगे। महाराज अग्रसैन जी की इसी संगठित शक्ति का परिणाम था कि विभिन्न परिस्थितियों के कारण अग्रोहा छोडने वाले निवासियों ने अपने को अग्रोहा एवं महाराज अग्रसैन से जोड़े रखा और वे अग्रोहा से सम्बन्धित होने के कारण अग्रवाल कहलाये। महालक्ष्मी व्रत कथा के अनुसार महाराजा अग्रसैन जी का जन्म प्रताप नगर के राजा धनपाल के वंश की छटी पीढ़ी में राजा वल्लभ के घर हुआ। उनके जन्मते ही सारे राज्य में अपूर्व आनन्द छा गया। जन्म के 12वें दिन शिशु का नामकरण हुआ। नाम अग्रसैन रखा गया। इसी खुशी में महाराजा वल्ल्भ ने यमुना नदी के किनारे एक नए नगर की स्थापना की जिसका नाम अग्रपुर रखा गया जो बाद में आगरा नाम से प्रसिद्व हुआ। 


अग्रसैन का लालन पोषण बड़े लाड़-चाव के वातावरण में हुआ। वे बचपन से बड़े प्रतिभाशाली थे। बड़े होने पर प्राचीन शिक्षा प्रणाली के अनुसार उनकी शिक्षा का प्रबन्ध किया गया। अग्रसैन ने बचपन में ही वेदशास्त्र, अस्त्र-शस्त्र, राजनीति, अर्थनीति आदि का ज्ञान प्राप्त किया।  सब प्रकार से सुयोग्य होने पर महाराजा अग्रसैन जी का विवाह हुआ। उनके विवाह के संबंध में जो कथा प्रचलित है वह इस प्रकार है। एक समय नागलोक से नागों के राजा कुमुद अपनी कन्या माधवी को लेकर भूलोक में आए। इन्द्र ने उसे चाहा और नागराज से वह कन्या मांगी पर नागराज ने सब प्रकार से अग्रसैन को सुयोग्य जान कर उसका विवाह अग्रसैन से कर दिया। यही माधवी अग्रवालों में पूज्यनीय हैं और माता के समान उसकी प्रतिष्ठा है। सुप्रतिष्ठित नागवंश से संबधित होने के कारण अग्रवाल लोग आज भी सर्पों को मामा कहते हैं उनको घरों में नाग पंचमी के दिन सर्पों की पूजा होती है तथा विवाह के समय नाग के आकार की चुण्डी बांधी जाती है।


अग्रसैन जी सब प्रकार से राज्य का शासन करने योग्य हो गये तो उनके पिता राजा वल्लभ ने प्रसन्न होकर संयास ग्रहण करने की ईच्छा प्रकट की। उस समय वर्णाश्रम धर्म का पालन होता था। अग्रसैन जी की अवस्था उस समय 35 वर्ष हो चुकी थी। वे सब प्रकार से सुयोग्य थे इसलिए प्रजा ने महाराजा की इच्छा का स्वागत किया। महाराज ने शुभ मुहुर्त में अग्रसैन का राजतिलक किया तथा स्वयं वन को प्रस्थान कर तपस्या करने चले गये और कुछ काल बाद वहीं उनका शरीर शांत हो गया। अपने पिता की मुक्ति हेतु महाराज अग्रसैन जी जब लोहागढ़ (पंजाब) में पिण्डदान कर वापिस एक जंगल से होकर गुजर रहे थे तो एक अदभुत घटना घटी। एक सिंहनी उस समय प्रसव कर रही थी।  अग्रसैन जी के लाव-लश्कर से उसके प्रसव में बाधा पड़ी। सिंह के क्रुद्व बच्चे ने जन्म लेते ही राजा के हाथी पर प्रहार किया और अकल्पनानीत शौर्य का प्रदर्शित किया। यह देख राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। राजा को आश्चर्य में पड़ा देख राजा के साथ चल रहे धर्माचार्यो ने कहा कि वास्तव में यह स्थान वीर-प्रसुता है इसलिए आप अपने राज्य की राजधानी यही बनायें। महाराज अग्रसैन उस भूमि के महान शौर्य, पराक्रम, प्राकृतिक वैभव एवं धर्माचार्यो के परामर्श से बड़े प्रभावित हुये और उन्होंने वही अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया और इस स्थान अग्रोहा में नई राजधानी बना राज्य करने लगे। इस प्रकार महाराज अग्रसैन ने सुखपूर्वक अपने राज्य का विस्तार किया। उनका राज्य सब प्रकार की सुख समृद्वि से परिपूर्ण था। किसी प्रकार का अभाव जन को न था। धर्म में महाराज की अगाध श्रद्वा थी। यज्ञों के माध्यम से जहाँ उन्होंने अपने राज्य की प्रजा को सदाचार और नैतिकता की और अग्रसर करने का प्रयास किया। वहां गोत्रों के प्रवर्तन द्वारा अग्रोहा राज्य की जनता को एकता एवं सगंठन के सूत्र में आबद्व किया। यह उनकी अद्ड्ढभुत संगठन क्षमता का ही परिण्ााम था कि शताब्दियां व्यतीत हो जाने पर आज भी अग्रवाल जाति संगठित रूप में विद्यमान है और वह अपने श्रेष्ठ चारित्रिक गुणों द्वारा राष्ट्र एवं मानवमात्र के कल्याण तथा श्री वृद्वि में संलग्न है।